सुबह के करीब सवा तीन बजे हैं. रेडियो इंस्पेक्टर अशोक कुमार अपने कंप्यूटर को देखने के लिए जैसे ही मुड़ते हैं, उनका चेहरा तन जाता है. वे स्क्रीन को जूम करके देखते हैं तो वहां एक पॉन्टून (अस्थायी) पुल पर बिना अनुमति के जाती हुई एक एसयूवी दिखाई देती है.
आज नौ फरवरी है. उत्तर भारत में सर्दी अभी गई नहीं है. कुमार और उनकी टीम प्रयागराज में स्थिति एक इंटीग्रेटेड कमांड एंड कंट्रोल सेंटर (आईसीसीसी) में हैं. यह विशेष तौर पर माघ मेले के प्रबंधन के लिए बनाया गया है. इस मेले में हर दिन दसियों लाख श्रद्धालु उस स्थान पर इकट्ठे होते हैं जिसे गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी का संगम कहा जाता है. यहां, भक्त पानी में इस विश्वास के साथ डुबकी लगाते हैं कि ऐसा करने से उनके सारे पाप धुल जाएंगे.
इस कमांड सेंटर के एक बड़े सफेद कमरे में मेजों की दो पंक्तियां हैं. इन पर लगे मॉनीटरों के जरिये पुलिस वाले करीब ७०० सीसीटीवी कैमरों से आने वाली फीड पर नजर रखते हैं. कमरे की एक दीवार पर ५५ इंच के कई टीवी स्क्रीन लगे हुए हैं. वहां काम कर रहे ज्यादातर पुलिस वालों की खाकी जैकेटें कुर्सियों के पीछे लटकी हुई हैं. वे काम करते हुए बीच-बीच में एक-दूसरे की ओर देखते हैं और अक्सर इशारों से यह बताते हैं कि उनकी तरफ सब ठीक है.
मॉनीटरिंग टीम इस वक्त हाई अलर्ट पर है. कुमार और उनकी टीम यहां कल रात आठ बजे १२ घंटे की शिफ्ट पर आयी थी. आज का पहला स्नान बस थोड़ी देर पहले – सुबह तीन बजे – शुरू हुआ है. चूंकि आज माघी पूर्णिमा है इसलिए पुलिस का मानना है कि आज करीब ७५ लाख लोग संगम में स्नान करने के लिए आ सकते हैं. हालांकि यह संख्या दो सप्ताह पहले के उस आंकड़े से काफी कम है जब एक करोड़ दस लाख लोगों ने यहां पर स्नान किया था. आज के स्नान के बाद कई तीर्थ यात्री अपने घर वापस चले जाएंगे. इनमें से कई लोगों को लेने के लिए उनके परिवार वाले आए हुए हैं.
कुमार का काम इतनी बड़ी भीड़ को नियंत्रण में रखना है. यहां भगदड़ मचने से लेकर आतंकी हमला और चोरी तक कुछ भी हो सकता है. वे एक कॉल करते हैं और एसयूवी को पूछताछ के लिए रोक लिया जाता है. इसके बाद स्क्रीन पर पुल के ऊपर बैरीकेड लगाता हुआ एक पुलिस वाला नजर आता है.कमांड सेंटर के बाहर लगी लाइटें अब बुझ गई हैं. और पूर्व दिशा में सूरज की लालिमा नजर आने लगी है. पानी पर नावों की परछाइयां उन्हें एक अलग आभा दे रही हैं. और हवा में भक्ति और उत्सव के माहौल को साफ महसूस किया जा सकता है.

माघ मेला उस कुंभ मेले का एक छोटा सा संस्करण है जिसमें धरती पर एक साथ सबसे ज्यादा लोग इकट्ठा होते हैं. कुंभ का मेला हर छह साल में लगता है. पिछली बार यह २०१९ की शुरुआत में लगा था. ४९ दिनों तक चले उस मेले में करीब २५ करोड़ लोगों ने संगम में स्नान किया था. उस दौरान अकेले एक ही दिन — चार फरवरी २०१९ को — करीब पांच करोड़ लोगों ने इसमें डुबकी लगाई थी. मानव इतिहास में यह दूसरा सबसे बड़ा शांतिपूर्ण आयोजन था. इस मामले में पहला स्थान भी एक कुंभ मेले के ही नाम है. लेकिन २०१० के इस मेले का आयोजन प्रयागराज में नहीं, उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार में किया गया था.
मेले की तैयारी के लिए प्रयागराज में गंगा के घाटों पर एक विशाल शहर का निर्माण किया जाता है. इस अस्थायी शहर को बनाने के लिए दसियों हजार अधिकारी महीनों दिन-रात काम करते हैं. ऊपर से देखने पर नीचे मौजूद टेंट, अस्थायी पुल और लोहे की चादरों वाली सड़कें ऐसी लगती हैं मानो रंगीन कपड़ों का कोई विशाल डिजाइनदार पैचवर्क हो, पानी के छोटे-बड़े गड्ढों-तालाबों से बंटा हुआ. इस पूरे शहर को खास तौर पर इस मेले के लिए ही तैयार किया जाता है.
मेले का बाहरी स्वरूप हर साल बदल जाता है और यह नदी के ऊपर निर्भर करता है. मेले की तैयारी बारिश के बाद अक्टूबर के महीने से शुरू हो जाती है जब गंगा नदी का पानी थोड़ा कम होने लगता है. इसके बाद अस्थायी सड़कें और पानी से बंटी हुई जमीन को जोड़ने के लिए अस्थायी पुल बनाने शुरु किये जाते हैं. किनारे पर घाट बनाये जाते हैं, सड़कों के किनारे लोहे की चादरें लगाई जाती हैं और पाइपलाइन और बिजली की केबल बिछाई जाती हैं. करीब तीन मील के तैरने वाले पुल (पॉन्टून जेटी) के पास लोगों के नहाने का व्यवस्था की जाती है और उसके नीचे नदी में जाल बिछाया जाता है ताकि अगर कोई गिर जाये तो उसे आसानी से बचाया जा सके.
इस साल गंगा का पानी अपने सामान्य स्तर से काफी ऊपर रहा है. ‘इस वजह से हमें ज्यादातर जमीन नवंबर के अंत में ही मिल सकी लेकिन भारी बारिश की वजह से दिसंबर से पहले काम शुरू नहीं हो पाया’ माघ मेले की तैयारी से जुड़े एक प्रशासनिक अधिकारी बताते हैं. इस साल का मेला २७० हेक्टेयर (६६७ एकड़) में फैला हुआ है जो मोनेको शहर से करीब ३० फीसदी ज्यादा है. प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से इसे छह सेक्टरों में बांटा गया है. इसका बुनियादी ढांचा बनाना किसी जंग जीतने से कम नहीं था. इस मेले में १३ पुलिस स्टेशन ४० पुलिस चौकियां और पांच थर्मल स्टेशन हैं. यहां २५ बेडों वाले पांच अस्पताल भी हैं जिनके पास ऑपरेशन थियेटरों के अलावा लैब और एंबूलेंस जैसी मेडिकल सुविधायें भी मौजूद हैं.
इतना सब करने के लिए एक मोटी रकम की जरूरत होती है. इस साल के मेले के लिए राज्य सरकार ने करीब पौने छह सौ करोड़ रुपये का बजट रखा था. पिछले साल कुंभ के मेले पर चार हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा खर्च किया गया था.
मेले में इन्फॉर्मेशन टेक्नोलजी से जुड़े सारे काम आईसीसीसी करता है जो कंक्रीट की बनी एक तीन मंजिला इमारत में स्थित है. इस इमारत का उद्घाटन करीब एक साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था. मेला क्षेत्र में एक मंदिर और सोलहवीं सदी के एक किले के अलावा बस यही एक स्थायी इमारत है. यह कंमाड सेंटर कई हिस्सों में बंटा हुआ है – मॉनीटरिंग रूम, जिसके बारे में हम ऊपर पढ़ चुके हैं और जहां से वीडियो कैमरों और कंप्यूटरों की मदद से चौबीसों घंटे मेले की निगरानी की जाती है; वायरलैस ग्रिड रूम जो निगरानी करने वालों और ग्राउंड स्टाफ के बीच पुल या तालमेल का काम करता है; वॉर रूम, जहां फायर, वॉटर और पुलिस विभाग के लोग किसी भी आकस्मिक जरूरत के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं; और लोगों की मदद के लिए बना एक कॉल सेंटर.
भीड़ का प्रबंधन करने के काम में कमांड सेंटर को सबसे ज्यादा मदद एक सॉफ्टवेयर से मिलती है – क्राउड मैनेजमेंट एप्लीकेशन(सीएमए). यह ७०० कैमरों की मदद से जहां तक वे देख सकते हैं वहां पर भीड़ की सघनता (क्राउड डेंसिटी) का अंदाजा लगा सकता है. इस सिस्टम को यह पता है कि मेले में मौजूद हर कैमरा कितना क्षेत्रफल कवर करता है. इसके बाद यह उस इलाके में मौजूद लोगों की गणना करके उस जगह की क्राउड डेंसिटी का पता लगा लेता है. अगर यह तीन व्यक्ति प्रति वर्गमीटर से ज्यादा होती है तो सिस्टम चेतावनी देता है. इसके बाद इलाके में मौजूद पुलिस को इसके बारे में जानकारी और भीड़ को कम करने के आदेश दिये जाते हैं.
आईसीसी का काम देखने वाली प्रयागराज स्मार्ट सिटी मिशन की टीम ने सीएमए को इस्तेमाल करने का फैसला करने से पहले कई विकल्पों पर विचार किया था. इनमें से एक विकल्प किसी इलाके की स्मार्टफोन डेंसिटी के जरिये वहां मौजूद भीड़ का पता लगाना था. लेकिन असिस्टेंट मैनेजर विपिन सिंह के मुताबिक इस पर अमल इसलिए नहीं किया गया क्योंकि माघ मेले में आने वाले ज्यादातर लोग स्मार्टफोन इस्तेमाल ही नहीं करते हैं. भारत में एक तिहाई से थोड़े ही ज्यादा लोगों – करीब ५० करोड़ – के पास ही स्मार्टफोन हैं. इसके अलावा यहां कई परिवारों में सिर्फ एक ही व्यक्ति के पास ही स्मार्टफोन होता है और गांव के लोग अक्सर फोन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. पुलिस के एक अनुमान के मुताबिक माघ मेले में आने वाले सबसे ज्यादा लोग इसी तरह के होते हैं. ‘ऐसे में अगर सिस्टम तीन लोग दिखाता है’ सिंह कहते हैं, ‘तो वहां पर १०० लोग भी हो सकते हैं जिनमें से ९७ के पास या तो बेसिक मोबाइल फोन होगा या फिर फोन होगा ही नहीं.’
पिछले साल मेले से जुड़े अधिकारियों ने फेशल रिकग्नीशन सिस्टम को इस्तेमाल करने के बारे में भी सोचा. इस तकनीक की मदद से लोगों की सही संख्या और वे किस जगह पर कितना समय बिताते हैं इसका पता लगाने का विचार था. लेकिन ऐसा किया नहीं जा सका. मेले में आने वाले कई लोग भीड़ में अक्सर अपने सर पर थैला रखकर चलते हैं. इस वजह से कई लोगों के चेहरे कैमरे की नजर में आ पाना संभव नहीं है.लेकिन मेले में आने वाली गाड़ियों को ट्रैक करना मुश्किल नहीं है. ऑटोमेटेड नंबर प्लेट रिकग्नीशन (एएनपीआर) सिस्टम मेले में प्रवेश करने और वहां से निकलने वाली हर गाड़ी का नंबर रिकॉर्ड कर लेता है. इसके बाद इसे चोरी गई गाड़ियों के डेटाबेस के साथ मिलाया जाता है. अगर कोई नंबर मैच हो जाता है तो इस बारे में एलर्ट भेज दिया जाता है. इस माघ मेले में आठ जगहों पर एएनपीआर वाले कैमरे लगाये गये हैं. लेकिन सिंह बताते हैं कि इनकी संख्या बढ़ाये जाने की योजना है. ‘अगले मेले में हम इनकी संख्या बढ़ाकर २८ करने पर विचार कर रहे हैं.’

इस समय सुबह के सवा सात बजे हैं. ममता शर्मा हाथ जोड़े हुए, घुटनों तक पानी में खड़ी हैं. वे प्रार्थना करते हुए अपने सर को कई बार झुकाती हैं. फिर नदी में डुबकी लगाती हैं. वे ऐसा चार बार करती हैं.
चारों तरफ स्नान कर रहे श्रद्धालुओं के ऊपर सीगल्स उड़ती नजर आ रही हैं. लेकिन दोनों को ही एक-दूसरे से कोई मतलब नहीं है. कोई श्रद्धालु अगर खाने की कोई चीज़ हवा में उछालता है तो सीगल्स पानी पर उतरने से पहले उसे हवा में ही झपट लेती हैं.
कुछ लोग किराये पर नावों को लेकर नदी में उस स्थान तक जाते हैं जिसे तीनों नदियों का संगम माना जाता है. वहां पर लोग नदियों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं, पानी में डुबकी लगाते हैं और प्लास्टिक की बोतलों को वहां के पवित्र पानी से भरते हैं. ‘संगम पर आप कई रंगों के पानी को मिलता हुआ देख सकते हैं’ नाव चलाने वाले अजय निषाद कहते हैं, ‘सफेद पानी गंगा का है और काला यमुना का.’ ध्यान से देखने पर आपको उनकी बात सही लगने लगती है.
जो लोग नाव को किराये पर नहीं से लकते हैं वे नदी के घाट पर ही स्नान करते हैं. मेले में आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु ऐसा ही करते हैं और मेला प्रशासन भी नदी में भीड़ कम करने के लिए लोगों को ऐसा ही करने की सलाह देता है.
ममता पानी से बाहर आती हैं. वे उसी हालत में अपनी मां को वीडियो कॉल करती हैं जो उनके साथ प्रयागराज नहीं आ पायी हैं. ममता फोन घुमाकर मां को संगम का दृश्य दिखाती हैं. मां कई बार हाथ जोड़कर नदी को प्रणाम करती हैं. उनकी आंखों से आंसू छलकने लगते हैं.
खुद को सुखाते हुए ममता बार-बार आसमान की ओर देखती हैं. किसी-किसी शुभ दिन मेला प्रशासन नदी में नहा रहे श्रद्धालुओं पर हेलिकॉप्टर से फूलों की बारिश करवाता है. ममता ने सोशल मीडिया पर इसके वीडियो देखे हैं. ‘हमें इसे देखने की बहुत इच्छा थी, लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ’ वे कहती हैं, ‘लेकिन यहां स्नान करना ही एक अनुभव है.’
ममता पूर्वी भारत के कोलकाता से १२ लोगों के साथ यहां आई हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले ये सभी लोग मूलत: यहां से करीब १०० किलोमीटर दूर स्थित जौनपुर के एक ही परिवार से ताल्लुक रखते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग वयोवृद्ध हैं और ३१ वर्षीय ममता इस समूह में सबसे छोटी हैं.
निषाद एक नाविक हैं जो पिछले तीन सालों से लोगों को संगम पर ले जाने का काम कर रहे हैं. वे बताते हैं कि माघ मेला हर साल इतना ही व्यवस्थित होता है. पुलिस ऐसे स्थानों की पहचान करती है जहां भीड़ बढ़ने पर लोगों को सुरक्षित रखा जा सके और वह पैदल चलने वाले लोगों का प्रबंधन करने में भी काफी निपुण है जिससे कहीं भीड़ का प्रवाह थमता नहीं है. इतने बड़े मेले में लोगों का अपनों से बिछुड़ जाना एक सामान्य सी समस्या है. लेकिन निषाद बताते हैं कि भले इसमें घंटों लग जाएं पर माघ मेले का प्रशासन हमेशा उनका पता लगा ही लेता है.
लेकिन पिछले कुछ समय में उन्हें एक नई चीज देखने को मिली है. प्रशासन बड़े स्तर पर कैमरों को इस्तेमाल करने लगा है, वे बताते हैं. ‘जरा ऊपर देखिये’ वे नदी के ऊपर मंडरा रहे एक ड्रोन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘यह हर चीज को देख रहा है.’
पिछले कुंभ मेले में लोगों को आईसीसीसी की असली अहमियत पता चली थी. मौनी अमावस्या के दिन, जब कुंभ मेले में स्नान के लिए पांच करोड़ लोग आये थे, अधिकारियों ने एक बहुत बड़ी दुर्घटना होने से बचा ली. करीब पांच बजे, स्नान का शुभ मुहूर्त खत्म होने के तुरंत बाद दसियों लाख लोग मेले से निकलकर सीधे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े. कुछ ही मिनटों में वहां पर तिल धरने की भी जगह नहीं थी.
प्रयागराज स्मार्ट सिटी मिशन के अधिकारी सिंह बताते हैं कि उस समय लोग एक इंच भी हिल नहीं पा रहे थे. ‘वह बहुत तनावपूर्ण स्थिति थी’ वे कहते हैं.
उस समय सबके ज़ेहन में २०१३ की वह दुर्घटना थी जब इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में ३८ लोगों की मृत्यु हो गई थी. इस दुर्घटना की कई वजहें बताई जाती हैं लेकिन इस मामले में हुई एक जांच के मुताबिक उत्तर-मध्य रेलवे के अधिकारियों ने भीड़ के आकार को कम करके आंका था और उन्हें ले जाने के लिए पर्याप्त ट्रेनों की व्यवस्था नहीं की थी. उधर राज्य सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए जरूरी करीब ६,००० बसों को तैनात करने में विफल रही थी. पुलिस ने भी भीड़ के प्रबंधन का काम ठीक से नहीं किया. यह पहली बार नहीं था जब इस तरह की त्रासदी हुई थी. १८२० के बाद से, कुंभ मेले के आयोजनों में आधा दर्जन से अधिक भगदड़ की घटनाएं हो चुकी हैं. १९५४ में लगे स्वतंत्र भारत के पहले कुंभ मेले में इसी वजह से ५०० लोगों की मृत्यु हो गई थी और २,००० से अधिक घायल हो गए थे.
लेकिन इस बार, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से लैस कैमरों ने पहले से ही उन इलाकों की पहचान कर ली जहां लोगों की संख्या (मानव घनत्व) असुरक्षित स्तर पर पहुंच गई थी. इसके बाद अधिकारियों को भगदड़ की आशंका के बारे में सचेत कर दिया गया. यह पहली बार है जब भारत में भीड़ के प्रबंधन के लिए एआई आधारित एप्लीकेशन का उपयोग किया गया है. इसके अलावा, इस वर्ष मेले के आयोजन से पहले, रेलवे अधिकारियों ने एक ‘क्राउड सिम्युलेशन टूल’ विकसित करने के लिए मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के साथ सहयोग किया था. यह टूल उस समय की गणना कर सकता था जो कोई व्यक्ति स्टेशन में प्रवेश करने के बाद ट्रेन में सवार होने के लिए लेता है. सिम्युलेशन टूल की मदद से यह अनुमान लगाया गया कि इलाहाबाद स्टेशन एक घंटे में १०,००० श्रद्धालुओं को ही संभाल सकता है. इसके बाद इस गणना के आधार पर ही लोगों को सुरक्षित रखने के उपाय किये गये.
आईसीसीसी मुख्यालय में मौजूद अधिकारियों ने इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के रास्ते में पड़ने वाले जॉनस्टनगंज जंक्शन की घेराबंदी के निर्देश जारी किए हैं. पुलिस को वहां मौजूद १५,००० लोगों की भीड़ के चारों ओर एक मानव श्रृंखला बनाने के लिए कहा गया है. करीब ३०,००० लोगों की एक भीड़ को प्रयागराज की सड़कों से दूर रखने के लिए १६ हेक्टेयर (४० एकड़) के एक बगीचे में भेजा गया है. रेलवे स्टेशन पर ज्यादा भीड़ को इकट्ठा होने से रोकने के लिए आईसीसीसी ने कैमरों की मदद से अतिरिक्त ट्रेनों की जरूरत का अनुमान लगाया है. दिन के अंत तक ७५ और ट्रेनों का इंतजाम कर लिया गया. ये उन ३०० यात्री ट्रेनों से अलग हैं जिनमें से हरेक पहले ही ५०० से १,००० तीर्थयात्रियों को उनके गंतव्य स्थानों पर पहुंचाने वाली थी.
स्थिति को नियंत्रण में करने में अधिकारियों को कई घंटे लग गए. लेकिन दिन के अंत तक, सड़कों और रेलवे स्टेशन को खाली करा लिया गया. मेले के एक अन्य हिस्से में एक छोटी सी भगदड़ मचने से एक दर्जन श्रद्धालु घायल हो गए, लेकिन किसी के हताहत होने की सूचना नहीं है.
एक बड़ी आपदा टल गई है.

रात के लगभग ९ बजे. ४ फरवरी को, निगरानी कक्ष में एक पुलिस कांस्टेबल अस्थायी शहर के वीडियो फ़ीड देख रहा है. इससे पहले तक उस दिन कुछ भी असामान्य नहीं हुआ था.
स्क्रीन पर आंखे गड़ाये, वह कॉन्स्टेबल अपने सहयोगियों के साथ शेष बचे दो बड़े स्नान के आयोजनों के बारे में बात कर रहा है. वे लोग चर्चा कर रहे हैं कि अब मेले में कितने दिन और बचे हैं और कितने और दिन उन्हें १२-घंटे की शिफ्टों में काम करना पड़ेगा.
‘यह क्या है’ उसने अपने आप से ही कहा. उसने स्क्रीन को ज़ूम करके देखा. उसमें धुंआ उठता हुआ दिख रहा था.
‘आग लग गई’ वह चिल्लाया.
उसने तुरंत फोन उठाया और इसके बारे में वायरलेस ग्रिड को बताया.
‘एक टेंट में आग लगी है. ये बस अभी शुरू हुई है.’
धुआं एक ऐसे कैंप से उठ रहा है जिसमें लगे टेंटों में हजारों श्रद्धालु रह रहे हैं.
वायरलेस ग्रिड ने तुरंत इस बारे में वहां पर मौजूद रिस्पॉन्स टीम को सतर्क कर दिया. कुछ ही पल बाद दमकलकर्मियों ने मौके पर पहुंचकर आग बुझा दी. यह सब सिर्फ एक ही मिनट में हो गया. इसके बारे में तीर्थयात्रियों को पता तक नहीं चला. वॉर रूम में काम करने वाले फायरमैन एसएस दुबे कहते हैं, “टेंट में मौजूद लोग हमें देखकर हैरान थे.”
क्योंकि इतने सारे लोग मेले में टेंट लगाते हैं और अपना खाना खुद ही पकाते हैं, इसलिए मेले में आग लग जाना कोई बड़ी बात नहीं है. माघ मेला के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एडीएसपी) आशुतोष मिश्रा बताते हैं कि इस साल मेले में कम से कम चार बार ऐसा हो चुका है. उन सभी में, वे कहते हैं, ‘हमारी प्रतिक्रिया का समय दो मिनट से कम रहा है.’ रेडियो सब-इंस्पेक्टर संजय कुमार के मुताबिक आईसीसीसी से पहले अधिकारियों को आग के बारे में जनता से मिली जानकारी पर निर्भर होना पड़ता था. ‘इतने समय में आधा मेला तबाह हो सकता था’ वे कहते हैं.
आग के अलावा, इस मेले में पुलिस को ज्यादातर छोटे-मोटे अपराधों और भगदड़ की घटनाओं से ही निपटना होता है. मेले में पुलिस की टीमें हर २० से ५० मीटर की दूरी पर देखी जा सकती हैं, मिश्रा बताते हैं, और वे हमेशा कंट्रोल रूम के संपर्क में रहती हैं. यह तब काम आता है जब अफवाहें फैलती हैं. क्योंकि तब जमीन पर मौजूद अधिकारी उसी समय सच्चाई का पता लगा कर लोगों को शांत कर सकते हैं. ‘वे लोगों को बता सकते हैं कि हमने कंट्रोल रूम से पूछा है और ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.’ यह उन्हें खोए हुए तीर्थयात्रियों या नकली साधुओं जैसी छोटी-मोटी समस्याओं को और अधिक प्रभावी ढंग से हल करने की सुविधा देता है. जब इतना कुछ चल रहा हो तब आईसीसीसी जमीन पर मौजूद अधिकारियों के लिए किसी नियामत से कम नहीं हैं. ‘मैं १.५ किलोमीटर क्षेत्र को कवर करता हूं’ सब-इंस्पेक्टर जितेंद्र कुमार गौतम कहते हैं, “मैं जितना हो सके सतर्क रहने की कोशिश करता हूं, लेकिन [कमांड सेंटर के बिना] मुझे कैसे पता चलेगा कि मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत कहां है?’
दिन भर पुलिस की वॉच टावर — जो कि मेले में मौजूद सबसे ऊंचा ढांचा है — के करीब लगा एक पीए (पब्लिक एड्रेस) सिस्टम, लगातार उन लोगों के बारे में घोषणा करता रहता है, जो अपने परिवारों से अलग हो गये हैं. कभी-कभी माइक्रोफ़ोन किसी ऐसे व्यक्ति को भी सौंप दिया जाता है जो अपने प्रियजन की तलाश कर रहा है. ‘ऐ राहुल के पापा! हम राहुल की मम्मी. सुन रहे हैं; जल्दी आइये यहां.’ भारत के छोटे शहरों में, पति-पत्नी का एक-दूसरे को इस तरह से संबोधित करना एक आम बात है. ऐसा करते समय अक्सर घर के बड़े बच्चे का नाम लिया जाता है.
इस साल पुलिस ने एक कम्प्यूटराइज्ड ‘मिसिंग-पीपल सेंटर’ शुरू किया है. यह लापता लोगों के विवरणों का मिलान सेंट्रल सर्वर में मौजूद जानकारियों से करता है. हालांकि अभी इस सेंटर में कुछ कमियां हैं. डेस्क के पीछे एक कांस्टेबल अपने सिस्टम को सर्वर से कनेक्ट करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. ‘यह हर दिन होता है’ वे कहती हैं. इस सेंटर में मौजूद पुलिस वालों ने आईटी या नेटवर्किंग की तकनीक का उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है. ऐसे में कांस्टेबल वही कर रही हैं जो वे कर सकती हैं — वे अपने पास मौजूद जानकारी पीए सिस्टम चलाने वालों को दे रही हैं.
हालांकि माघ मेला सभी प्रकार की आधुनिक तकनीकों से लैस है, लेकिन लंबे समय से आजमाये हुए पीए सिस्टम जैसे कुछ पुराने तरीके आज भी यहां अपना काम बखूबी करते हैं. आखिर में, मेले के सुचारू संचालन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान उस संस्थागत ज्ञान का ही है जिसे दशकों में इकट्ठा किया गया है — जैसे कि यह जानना कि वास्तव में सुरक्षा कर्मियों को कैसे तैनात किया जाए और पैदल यातायात का प्रबंधन कैसे हो. यहां एक अजीब सा विरोधाभास यह है कि करोड़ों रुपयों का एक अत्याधुनिक तंत्र मेले में आने वाले उन लाखों श्रद्धालुओं के जीवन को आसान और सुरक्षित बनाता है जिनका तकनीक के साथ कोई संबंध अगर है भी तो वह बहुत दूर का है. लेकिन जब वे पुनर्जन्म के चक्र से खुद को मुक्त करने और मोक्ष को पाने का प्रयास कर रहे होते हैं, उस वक्त यह बात उनके दिमाग में नहीं होती है.

प्रयागराज सिटी के आईसीसीसी में, असिस्टेंट मैनेजर विपिन सिंह मेले के निकास द्वारों और रेलवे स्टेशन की वीडियो फीड को चेक कर रहे हैं. इस साल मेले में जिस तरह से भीड़ का प्रबंधन किया गया वे उससे खुश लग रहे हैं. पिछले साल का कुंभ मेला उनकी टीम को कई सीख देने वाला था, लेकिन उससे बहुत छोटे माघ मेले में उन्हें तकनीक के साथ प्रयोग करने और उसे और बेहतर बनाने की काफी आज़ादी थी.
‘हम इस मेले का उपयोग और अधिक डेटा इकट्ठा करने के लिए कर रहे हैं जो डीप लर्निंग के लिए जरूरी है’ वे कहते हैं.
वे इसके उदाहरण के तौर पर मेले में कचरा प्रबंधन की व्यवस्था के बारे में बताते हैं. मेले को साफ रखने के लिए इसमें एआई से लैस कैमरे लगाये गए हैं. उनमें यह पहचानने की क्षमता है कि कहीं कोई कूड़ेदान भर तो नहीं गया है. इसके अलावा, कूड़ेदान अपने पास में मौजूद ट्रक को संकेत भेजने के लिए आरएफआईडी टैगिंग सिस्टम का प्रयोग करता है. सिंह की टीम एक ऐसी प्रणाली भी विकसित कर रही है जो अपने आप उस व्यक्ति की तस्वीर ले लेगी जो गंदगी फैला रहा है. ‘हम अभी सिर्फ यह पता लगाने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं कि कूड़ा कहां फेंका जा रहा है ताकि हम उसे साफ कर सकें. फिलहाल, हम इसका इस्तेमाल गंदगी करने वालों की पहचान के लिए करने के बारे में नहीं सोच रहे हैं’ वे स्पष्ट करते हैं.
माघ मेले में मौजूद व्यवस्था भारत में सर्वेलेंस तकनीक की बढ़ती भूमिका का एक और उदाहरण है. आधार (नैशनल बायोमेट्रिक आइडेंटिटी कार्ड प्रोग्राम) पर २०१७ में दिये एक ऐतिहासिक फैसले में, देश की सर्वोच्च अदालत ने व्यक्तिगत निजता को लोगों का मौलिक अधिकार घोषित किया था. लेकिन वह भी मोदी सरकार को दैनिक जीवन में सर्वेलेंस, विशेषकर फेशल रिकग्नीशन तकनीक का इस्तेमाल करने से नहीं रोक सका है. दिसंबर २०१९ में, पुलिस ने नई दिल्ली में आयोजित एक रैली में लोगों को ट्रैक करने के लिए इसका उपयोग किया था. उसी महीने, केंद्र सरकार ने निजी डाटा सुरक्षा बिल को संसद में पेश किया इसमें उसके द्वारा कंपनियों से अज्ञात लोगों का निजी डेटा एकत्रित करने का प्रावधान है.
बैंगलोर और हैदराबाद अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर फेशल रिकग्नीशन सिस्टम्स पहले से ही मौजूद हैं, और मोदी सरकार दुनिया के सबसे बड़े फेशल रिकग्नीशन सिस्टम को अमल में लाने पर विचार कर रही है. बीते कुछ समय से, पुलिस पुणे और हैदराबाद में कोविड-१९ लॉकडाउन को लागू करने के लिए एआई वाले कैमरों और फेशल रिकग्नीशन तकनीक का उपयोग कर रही है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय में साइबर कानून से जुड़े मामलों के अधिवक्ता एनएस नप्पिनई बताते हैं कि फिलहाल ऐसा कोई विशेष कानून या नियम नहीं है जो इस प्रौद्योगिकी को नियंत्रित कर सके और अभी तक इस मामले में कानूनी मिसालें भी स्थापित नहीं हो सकी हैं. नप्पिनई चेतावनी देते हुए कहते हैं कि ‘बहुत सारा निजी डेटा केवल मेले के दौरान ही नहीं बल्कि उसके अलावा भी एकत्रित किया जा रहा है और उसका इस्तेमाल फेशल रिकग्नीशन तकनीक के जरिये किया जा रहा है.’
लेकिन ज्यादातर तीर्थयात्री इन विवादों के बारे में नहीं जानते. और मेला अधिकारियों से डेटा संग्रह और गोपनीयता के बारे में सवाल करने पर वे इन्हें टाल देते हैं और बातचीत की दिशा लोगों की सुरक्षा के मुद्दे की ओर मोड़ देते हैं.
‘हमें यहां जो भी सीखने को मिला है उसका इस्तेमाल हम तकनीकी समाधानों को बेहतर बनाने के लिए करने जा रहे हैं. अगले माघ मेले में तकनीक का और भी बढ़िया इस्तेमाल देखने को मिलेगा’ विपिन सिंह कहते हैं.

दिन अब ढल चुका है और ममता अपने आज के अनुभव से खासी खुश हैं. ‘इस मेले में हमारे साथ कहीं भी धक्का-मुक्की नहीं हुई’ वे कहती हैं, ‘यहां काफी भीड़ है लेकिन चलने-फिरने में कोई दिक्कत नहीं होती. मैं हमारे साथ आये वयोवृद्ध लोगों के लिए परेशान थी. लेकिन सब सही था.’
‘मुझे नहीं पता कि उन्होंने मेले का आयोजन कैसे किया लेकिन उन्होंने ऐसा अच्छे से किया है.’
मेला अगले १२ दिनों तक और चलेगा, जिसके अंत में एक और बड़ा स्नान होगा. लेकिन जो सिर्फ आज ही के लिए आए थे वे अब यहां से जाने लगे हैं. तीर्थयात्री अपने शिविरों को खाली कर रहे हैं; टेंटों में रखा सामान इकट्ठा किया जा रहा है; महिलाएं उस सामान को छोटी-छोटी गठरियों में बांध रही हैं, और पुरुष उन्हें गाड़ियों पर लाद रहे हैं. कुछ लोग खाली रह गई कैनों में गंगाजल भरने के लिए दौड़-भाग कर रहे हैं.
नदी के तट पर पालथी मार कर बैठी हुई महिलाएं शाम की प्रार्थना कर रही हैं. लड़कियों का एक झुंड मिट्टी के दीये जलाकर उन्हें पानी में रख रहा है. पिछली रात को शादी करने वाला एक जोड़ा अभी भी शादी के कपड़ों में ही है. नदियों का आशीर्वाद पाने के लिए वे संगम को प्रणाम करते हैं. उनके चारों ओर, कुछ लोग तस्वीरें खिंचवा रहे हैं. इनमें से एक व्यक्ति एक डोंगी (छोटी नाव) पर चढ़ता है और किसी बॉलीवुड फिल्म स्टार की तरह अपनी बाहों को फैलाता है. एक वृद्ध व्यक्ति, जो भगवा रंग में लिपटे हैं, स्कूटर से अपनी बैसाखी को उठाते हैं और खड़े होकर नदी को प्रणाम करते हैं. उनके सामने, संगम का सुनहरा पानी स्लेटी रंग की धुंध में मिल जाता है. मेले में सूरज अब अस्त हो गया है.